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प्रा॒चीनं॑ ब॒र्हिः प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्या वस्तो॑र॒स्या वृ॑ज्यते॒ऽअग्रे॒ऽअह्ना॑म्। व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑यो दे॒वेभ्यो॒ऽअदि॑तये स्यो॒नम् ॥२९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒चीन॑म्। ब॒र्हिः। प्र॒दिशेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। पृ॒थि॒व्याः। वस्तोः॑। अ॒स्याः। वृ॒ज्य॒ते॒। अग्रे॑। अह्ना॑म्। वि। ऊँ॒ इ॑त्यूँ। प्र॒थ॒ते॒। वि॒त॒रमिति॑ विऽत॒रम्। वरी॑यः। दे॒वेभ्यः॑। अदि॑तये। स्यो॒नम् ॥२९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अस्याः) इस (पृथिव्याः) भूमि के बीच (प्राचीनम्) सनातन (बर्हिः) अन्तरिक्ष के तुल्य व्यापक ब्रह्म (वस्तोः) दिन के प्रकाश से (वृज्यते) अलग होता (अह्नाम्) दिनों के (अग्रे) आरम्भ प्रातःकाल में (देवेभ्यः) विद्वानों (उ) और (अदितये) अविनाशी आत्मा के लिए (वितरम्) विशेषकर दुःखों से पार करनेहारे (वरीयः) अतिश्रेष्ठ (स्योनम्) सुख को (वि, प्रथते) विशेषकर प्रकट करता उसको तुम लोग (प्रदिशा) वेद शास्त्र के निर्देश से जानो और प्राप्त होओ ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वानों के लिए सुख देवें, वे सर्वोत्तम सुख को प्राप्त हों, जैसे आकाश सब दिशाओं और पृथिव्यादि में व्याप्त है, वैसे जगदीश्वर सर्वत्र व्याप्त है। जो लोग ऐसे ईश्वर की प्रातःकाल उपासना करते, वे धर्मात्मा हुए विस्तीर्ण सुखोंवाले होते हैं ॥२९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(प्राचीनम्) प्राक्तनम् (बर्हिः) अन्तरिक्षवद् व्यापकं ब्रह्म (प्रदिशा) प्रकृष्टया दिशा निर्देशेन (पृथिव्याः) भूमेः (वस्तोः) दिनात् (अस्याः) (वृज्यते) त्यज्यते (अग्रे) प्रातःसमये (अह्नाम्) दिनानाम् (वि) (उ) (प्रथते) प्रकटयति (वितरम्) विशेषेण सन्तारकम् (वरीयः) अतिशयेन वरणीयं वरम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (अदितये) अविनाशिने (स्योनम्) सुखम् ॥२९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यदस्याः पृथिव्या मध्ये प्राचीनं बर्हिर्वस्तोर्वृज्यते अह्नामग्रे देवेभ्य उ अदितये वितरं वरीयः स्योनं विप्रथते तद्यूयं प्रदिशा विजानीत प्राप्नुत च ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वद्भ्यः सुखं दद्युस्ते सर्वोत्तमं सुखं लभेरन्। यथाऽऽकाशं सर्वासु दिक्षु पृथिव्यादिषु च व्याप्तमस्ति, तथा जगदीश्वरः सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति। ये तमीदृशं परमात्मानं प्रातरुपासते, ते धर्मात्मानः सन्तो विस्तीर्णसुखा जायन्ते ॥२९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक विद्वानांना सुख देतात त्यांना सर्वोत्तम सुख प्राप्त होते. तसे आकाश सर्व दिशांमध्ये व पृथ्वीमध्ये व्याप्त आहे तसा ईश्वर सर्वत्र व्याप्त आहे. जे लोक अशा ईश्वराची प्रातःकाळी उपासना करतात ते धर्मात्मा बनून सुखी होतात.